भूमि स्वामित्व: भारत में सबसे बड़े जमीन मालिक कौन? सरकार, सेना, रेल और धार्मिक संस्थान की असली तस्वीर

किसके पास कितनी जमीन? बड़े मालिको का स्पष्ट हिसाब
भारत की जमीन को लेकर सबसे बड़ा सच यह है कि सार्वजनिक संस्थाओं के पास सबसे ज्यादा नियंत्रण है। केंद्र सरकार, राज्य सरकारें, सेना, रेल, पोर्ट ट्रस्ट, एयरपोर्ट, विश्वविद्यालय, धार्मिक बोर्ड—सब मिलकर देश के भूमि परिदृश्य को तय करते हैं। इस पूरी तस्वीर को समझने के लिए भूमि स्वामित्व के भरोसेमंद और संदर्भित आंकड़े जरूरी हैं, वरना सोशल मीडिया के बढ़े-चढ़े दावे आसानी से भ्रम फैला देते हैं।
सबसे ऊपर केंद्र सरकार आती है। विभिन्न मंत्रालयों और सार्वजनिक उपक्रमों के नाम पर केंद्र के पास लगभग 58.07 लाख एकड़ (करीब 23,500 वर्ग किमी) जमीन दर्ज है। यह जमीन दफ्तरों, कॉलोनियों, भंडारण, भविष्य की परियोजनाओं, सड़क-पुल-पाइपलाइन मार्गों, पीएसयू कैम्पस और संस्थागत उपयोग में आती है। इतनी बड़ी जमीन का प्रबंधन आसान नहीं होता, इसलिए बीते वर्षों में केंद्र ने अपनी परिसंपत्तियों का डिजिटल रिकॉर्ड बनाना शुरू किया है ताकि खाली पड़ी जमीन का बेहतर उपयोग हो सके।
दूसरे नंबर पर रक्षा मंत्रालय आता है। सेना के प्रशिक्षण क्षेत्र, फायरिंग रेंज, डिपो, वर्कशॉप, कैंटोनमेंट और रणनीतिक ठिकानों के लिए लगभग 17.31 लाख एकड़ जमीन का इस्तेमाल होता है। यह जमीन संवेदनशील मानी जाती है। रक्षा संपत्तियों की देखरेख डायरेक्टोरेट जनरल ऑफ डिफेंस एस्टेट्स करता है। समय-समय पर ऑडिट में यह भी सामने आता है कि कई जगहों पर सीमांकन, म्यूटेशन और भूमि रिकॉर्ड अपडेट नहीं हुए, जिससे विवाद और अतिक्रमण के मामले पैदा होते हैं।
भारतीय रेल के पास करीब 11.72 लाख एकड़ जमीन है। यह रेलवे ट्रैक, स्टेशन, यार्ड, गोदाम, सब-स्टेशन, कॉलोनियों और लॉजिस्टिक्स पार्क के लिए जरूरी है। रेल भूमि विकास प्राधिकरण इन परिसंपत्तियों का वाणिज्यिक उपयोग बढ़ाने पर काम करता है—स्टेशन पुनर्विकास, पार्किंग, मल्टीमॉडल हब, वेयरहाउसिंग जैसी परियोजनाएं इसी रणनीति का हिस्सा हैं। कई शहरों में रेलवे की खाली या अतिक्रमित जमीन को साफ कर मास्टर प्लान से जोड़ा जा रहा है, ताकि ट्रांजिट-ओरिएंटेड डेवलपमेंट आगे बढ़े।
यहां एक अहम बात और जोड़नी चाहिए—राज्य सरकारें देश की सबसे बड़ी सार्वजनिक जमीन मालिक हैं, खासतौर पर वन और राजस्व भूमि के रूप में। भारत में वन आवरण सात लाख वर्ग किमी से ज्यादा है और इसका बड़ा हिस्सा राज्य वन विभागों के अधिकार में आता है। यानी अगर आप सार्वजनिक जमीन का व्यापक कैनवास देखें, तो राज्यों की भूमिका केंद्रीय सरकार से भी बड़ी दिखती है। शहरी निकायों, औद्योगिक विकास प्राधिकरणों और सिंचाई विभागों के पास भी बड़े भू-खंड हैं जो शहरों के फैलाव और उद्योगों की जरूरतों के लिए उपयोग होते हैं।
धार्मिक संस्थाएं भी बड़े भूमि धारक हैं, लेकिन इनके आंकड़े बिखरे हुए और असमान हैं। वक्फ संपत्तियों का स्केल सबसे स्पष्ट दिखता है। देश में 30 वक्फ बोर्ड मिलकर लाखों संपत्तियों का रिकॉर्ड रखते हैं। हाल के वर्षों में उपलब्ध केंद्रीकृत सूचनाओं और बोर्ड के दावों के आधार पर वक्फ की जमीनें करीब 9 लाख एकड़ के आसपास बताई जाती हैं। वक्फ मैनेजमेंट सिस्टम इंडिया पोर्टल पर 8 लाख से ज्यादा अचल संपत्तियां चिन्हित हैं। संसद की एक समिति ने पहले यह भी कहा था कि इस विरासत जमीन का बड़ा हिस्सा दशकों से अतिक्रमण और धीमी लैंड रिकॉर्डिंग की वजह से वास्तविक उपयोग से बाहर है। कई राज्यों में वक्फ अदालतें और विशेष प्रावधान इस समस्या को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं।
हिंदू धार्मिक और चैरिटेबल ट्रस्ट भी बड़ी जमीनें मैनेज करते हैं—मंदिर, आश्रम, धर्मशाला, गोशाला, पाठशालाएं, अस्पताल और धर्मार्थ संस्थान। तिरुमला तिरुपति देवस्थानम, शिरडी साईं संस्थान, पद्मनाभस्वामी मंदिर जैसे बड़े ट्रस्टों के पास संपत्तियां और आय का बड़ा आधार है। लेकिन यहां एक जरूरी फर्क समझना होगा—अक्सर खबरों में बताई गई कुल संपत्ति वैल्यू में सोना, नकद, आभूषण, निवेश और किराए की आय शामिल होती है, जो सीधे तौर पर जमीन के क्षेत्रफल का संकेत नहीं देती। यानी संपत्ति की कीमत और जमीन की मात्रा एक ही चीज नहीं हैं। कई ट्रस्ट अलग-अलग राज्यों के कानूनों के तहत चलते हैं, और जमीन का रिकॉर्ड राज्यवार दफ्तारों में बंटा हुआ है।
चर्च संस्थाएं भी देश भर में स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, वृद्धाश्रम और परगनों के लिए जमीन रखती हैं। पर यहां एक बड़ी गलतफहमी चलती रहती है—कुछ वायरल दावे चर्च के नाम पर असंभव पैमाने की जमीन बताकर फैलाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, 7 करोड़ हेक्टेयर या 17 करोड़ एकड़ के दावे गणितीय रूप से भी असंगत हैं, क्योंकि भारत की कुल भौगोलिक क्षेत्रफल ही करीब 328 लाख हेक्टेयर है। चर्च संपत्तियां प्रायः डायोसीज़, ट्रस्ट और सोसायटी के नाम पर दर्ज होती हैं और उनका एकीकृत राष्ट्रीय रजिस्टर नहीं है। इसलिए इस खंड में सावधानी से, दस्तावेज़ी प्रमाण के आधार पर ही बात करना सही है।
केंद्र और राज्य के बाहर अन्य बड़े संस्थान भी जमीन रखते हैं। बड़े पोर्ट ट्रस्ट, एयरपोर्ट, आयुध निर्माणी, बीएसएफ-सीआरपीएफ जैसी सुरक्षा बलों के कैंप, तेल पाइपलाइन कॉरिडोर और बिजली ग्रिड के राइट-ऑफ-वे में लंबी भूमि पट्टियां जुड़ी हुई हैं। विश्वविद्यालयों और आईआईटी-आईआईएम जैसे संस्थानों के कैंपस सैकड़ों से लेकर दो हजार एकड़ से ऊपर तक फैले हैं—जैसे आईआईटी खड़गपुर के पास दो हजार एकड़ के आसपास का आवासीय-शैक्षिक परिसर है और कई पुराने केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कैंपस भी हजार एकड़ के करीब हैं।
कॉरपोरेट क्षेत्र की बात करें तो जमीन का मापन थोड़ा अलग तरीके से होता है। रियल एस्टेट कंपनियां अक्सर जमीन बैंक की बात एफएसआई/एफएआर और डेवलपबल पोटेंशियल के हिसाब से करती हैं, जो हमेशा सादी एकड़ संख्या में नहीं बैठता। फिर भी एक मोटा अंदाजा देने के लिए—डीएलएफ जैसी कंपनियों के पास ऐतिहासिक रूप से करीब 10,000 एकड़ तक की संपदा अलग-अलग शहरों में रही है। कई बिजनेस हाउस भूमि को सीधे स्वामित्व, दीर्घकालीन लीज या जॉइंट डेवलपमेंट एग्रीमेंट के जरिए नियंत्रित करते हैं, इसलिए एक ही परियोजना में अलग-अलग प्रकार के कानूनी अधिकार मिलते-जुलते दिखते हैं।
एक नज़र उन जमीनों पर भी डालें जो नजर नहीं आतीं—नदी-नालों के किनारे की संरक्षण पट्टियां, समुद्र तट के पास CRZ नियमों के तहत संरक्षित क्षेत्र, राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य, बाढ़ क्षेत्र मानचित्रण के बाद चिन्हित नो-डेवलपमेंट जोन, और रेलवे-हाईवे के किनारे की सेफ्टी स्ट्रिप। यह सब कागज पर जमीन ही हैं, पर इनका उपयोग बहुत सीमित और सख्त नियमों में बंधा होता है।

कानून, विवाद और डेटा की सच्चाई: आंकड़े क्यों टकराते हैं
भारत में जमीन का रिकॉर्ड अभी भी राज्यों के राजस्व विभागों की खसरा-खतौनी, रिकॉर्ड ऑफ राइट्स और म्यूटेशन पर टिका है। अलग-अलग जगहों पर एकड़, हेक्टेयर और वर्ग मीटर में मापन का मिश्रण है। यही वजह है कि जब आप एक ही संपत्ति के दो दस्तावेज देखते हैं, तो आंकड़े अलग दिख जाते हैं। इसी समस्या को ठीक करने के लिए डिजिटल इंडिया लैंड रिकॉर्ड्स मॉडर्नाइजेशन प्रोग्राम और यूनिक लैंड पार्सल आइडेंटिफिकेशन नंबर जैसे कदम उठाए गए हैं ताकि हर भू-खंड को एक स्थायी आईडी मिले और भ्रम कम हो।
केंद्र की जमीन का समेकित डैशबोर्ड बनाने की कवायद भी बढ़ी है, जिससे यह पता चले कि किस मंत्रालय या पीएसयू के पास कहां कितनी जमीन है और उसका वर्तमान उपयोग क्या है। मकसद है—खाली या कम उपयोग वाली जमीन की पहचान, संपत्ति प्रबंधन में पारदर्शिता और बेहतर परियोजना योजना। भारतीय रेल और रक्षा मंत्रालय भी अपने-अपने पोर्टल पर परिसंपत्तियों का मानचित्रण आगे बढ़ा रहे हैं।
अतिक्रमण एक बड़ी चुनौती है। वक्फ संपत्तियों पर तो संसदीय समितियों ने वर्षों से लगातार अतिक्रमण की बात उठाई है। रेलवे की जमीन पर भी बस्तियां, दुकानें और कच्ची बाउंड्री के चलते विवाद खड़े होते हैं। रक्षा जमीन पर फेंसिंग, सीमांकन और पुरानी बंदोबस्त फाइलें अदालतों में उलझी रहती हैं। एक केस का निपटारा होते-होते दूसरा उठ खड़ा होता है, क्योंकि शहरी फैलाव तेज है और जमीन का बाजार मूल्य रिकॉर्ड के मुकाबले कई गुना ऊपर है।
मूल्यांकन भी अलग दुनिया है। सरकारी खातों में कई जमीनें ऐतिहासिक लागत पर दर्ज हैं, जबकि बाजार मूल्य आसमान छू चुका है। जब किसी रिपोर्ट में कहा जाता है कि किसी संस्था के पास लाखों करोड़ की संपत्ति है, तो इसमें जमीन के अलावा इमारतें, प्लांट-मशीनरी, लीज रेंट और निवेश भी शामिल हो सकते हैं। इसलिए जमीन के क्षेत्रफल और कुल संपत्ति मूल्य को हमेशा अलग-अलग समझना चाहिए।
धार्मिक संस्थाओं की जमीन पर विशेष कानून लागू होते हैं। वक्फ संपत्तियां वक्फ अधिनियम के तहत आती हैं, जहां ट्रिब्यूनल और विशेष अदालतें भी बनाई गई हैं। कई राज्यों में मंदिरों और धार्मिक बंदोबस्तों के लिए अलग बोर्ड हैं जो नियुक्ति, लेखा और उपयोग की निगरानी करते हैं। चर्च और अन्य धर्म आधारित संस्थाएं प्रायः पब्लिक ट्रस्ट या सोसायटी रजिस्ट्रेशन कानून के जरिए संपत्तियां रखती हैं। इस विविधता के कारण एक राष्ट्रीय समेकित आंकड़ा तैयार करना जटिल हो जाता है।
भूमि सुधार का पुराना इतिहास भी इस तस्वीर को प्रभावित करता है। जमींदारी उन्मूलन, भूमि सीलिंग कानून और बंजर भूमि के वितरण से बड़े एस्टेट टूटे, पर संस्थागत उपयोग—स्कूल, अस्पताल, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, आश्रम—को कई जगह छूटें मिलीं। कुछ राज्यों में सीलिंग से पहले ट्रस्टों ने जमीन दान में ली या दी, जिसकी शर्तें आज भी राजस्व रेकॉर्ड में दर्ज हैं। यही कारण है कि धार्मिक और शैक्षिक संस्थानों की जमीन पर पुराने दस्तावेज सामने आते हैं और विवाद वर्षों तक चलते हैं।
सरकारी परिसंपत्तियों के मोनेटाइजेशन की बहस भी तेज है। राष्ट्रीय मोनेटाइजेशन पाइपलाइन के तहत स्टेशनों, सड़कों, पावर ट्रांसमिशन लाइनों, वेयरहाउसिंग और पोर्ट एसेट का दीर्घकालीन लीज मॉडल अपनाया जा रहा है। लक्ष्य है—नया कर लगाए बिना सरकार के पास मौजूद परिसंपत्तियों से राजस्व निकाला जाए और नई परियोजनाओं के लिए पूंजी जुटाई जाए। पर यहां भी सीमाएं हैं—रक्षा, वन या संवेदनशील क्षेत्रों की जमीन के साथ सुरक्षा और पर्यावरणीय नियम जुड़ते हैं, जिन्हें दरकिनार नहीं किया जा सकता।
शहरों की जमीन पर सबसे बड़ा दबाव आवास और आधारभूत ढांचे का है। मास्टर प्लान में हरित क्षेत्र, जल निकाय, बाढ़ क्षेत्र और सार्वजनिक संस्थानों के लिए भूमि आरक्षित होती है। जैसे-जैसे शहर बढ़ते हैं, यह आरक्षण निजी मांग से टकराता है। सार्वजनिक जमीन पर झुग्गियों का फैलाव और पुनर्वास की जरूरत—यह दोनों बातें नगर निकायों की सबसे कठिन परीक्षा लेती हैं। सफल मॉडल वहीं दिखते हैं, जहां परिवहन, आवास और रोज़गार के विकल्प साथ में प्लान किए गए हों।
अब आगे किस पर नजर रखनी चाहिए? एक, केंद्र और राज्यों की भूमि का एकीकृत डिजिटल कैडस्ट्रे—ताकि सभी संस्थाओं का नक्शा एक प्लेटफॉर्म पर दिखे। दो, अतिक्रमण के मामलों में तेज सुनवाई और स्पष्ट मुआवजा-पुनर्वास नीति। तीन, रेल और रक्षा जैसी एजेन्सियों की गैर-महत्वपूर्ण जमीन का पारदर्शी लीज—स्टेशनों और लॉजिस्टिक्स हब के लिए। चार, धार्मिक संपत्तियों का स्वच्छ रिकॉर्ड—जहां दावे और हकीकत अलग-अलग बोलते हैं, वहां दस्तावेज सार्वजनिक हों। पांच, पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्रों में स्पष्ट सीमा और जीआईएस-आधारित निगरानी—ताकि विकास और संरक्षण में संतुलन बना रहे।
निचोड़ यही है—भारत की जमीन की कहानी सिर्फ एक बड़े मालिक की नहीं, बल्कि दर्जनों किस्म के मालिकों, कानूनों और जरूरतों की है। केंद्र के पास भारी-भरकम परिसंपत्तियां हैं, सेना और रेल रणनीतिक और सार्वजनिक उपयोग के बड़े संरक्षक हैं, राज्य सरकारें वन और राजस्व भूमि के जरिए असली भू-परिदृश्य तय करती हैं, और धार्मिक संस्थाएं अपने ऐतिहासिक दान और ट्रस्ट संरचनाओं की वजह से खास जगह रखती हैं। किसी भी दावे को सच मानने से पहले उसका स्रोत और यूनिट देख लेना आधी लड़ाई जीत लेता है।